बहारों फिर से आओ न

कुछ पीड़ाएं कुछ मायूसी कुछ रंज-ओ-गम सहते-सहते

मन की हर कोंपल सूख रही है इस पतझड़ में रहते-रहते

ओ मधुर सुरों की कोयलिया तुम फिर से गाओ न

बहारों फिर से आओ न, बहारों फिर से आओ न।

 

एक वक्त था जब महकता था मैं भी बागों के फूलों सा

जब होकर मस्त लहकता था तन-मन सावन के झूलों सा

अब जाने कितने दिन बीत गए इन अधरों पर मुस्कान लिए

बरसों से हमने रखे हैं प्राणों की देहली पर बुझे दिए

ओ भादों की बिजली तुम कौंधो ये दिए जलाओ न

बहारों फिर से आओ न, बहारों फिर से आओ न

 

एक शख्स जो मुझमें बसता था जिससे थी मुझमें हर एक चमक

उसने ही आखिर बुझा दिया मेरी खुशियों का जलता दीपक

जो कभी मेरे न हुए मगर कुछ भरम थे जिनके वादों के

दिल के इस सूने रस्ते पर कुछ गड्ढे हैं उनकी यादों के

ओ मेघों ये गड्ढे भरने को तुम जल बरसाओ न

बहारों फिर से आओ न, बहारों फिर से आओ न।

 

✍️….. अमन सिंह गार्जन