सोचता हूँ

सोचता हूँ…

सोचता हूँ कि एक रोज तुम्हारे घर आऊं

तुम्हारी चौखट पे खड़ा होकर दरवाजा खटखटाऊं।

तुम रोजमर्रा के कपड़े पहने दरवाजा खोलो और मुझे देखकर अवाक् सी रह जाओ

अचानक तुम्हारे चेहरे की वीरानियों में बहार लौट आये

जैसे मुद्दतों का बिछड़ा प्यार लौट आये

आज भी पुरानी बातों, पुरानी आदतों से बंधी तुम झुककर मेरे जूते निकालो

और बिठाओ मुझे उसी कमरे में जहां हमने पहली दफा मोहब्बत को नई परिभाषा दी थी।

जहां तुमने मुझे पिलाई थी मोहब्बत भरी चाय और फिर तितलियों की तरह रंगों से खेलती हुई तुम आ लगी थी मेरे गले से।

जहां मेरी बाजुओं के सख्त हल्के में तुम्हारा नाजुक बदन था

रेशमी हांथों में चूड़ियों की मध्यम खनक थी

जहां छेड़ी थी मैंने अपनी उंगलियां तुम्हारी लटेदार जुल्फों में

कमरे में मचलती सांसों की महक थी ।

जहां शर्मगीं होठों से चाहत की बात करते-करते

तुमने खाई थी कसम उम्र भर साथ निभाने की ।

फिर से उसी बिस्तर पर बैठकर तुम्हारी गोद में सर रखूं और तुम्हें बताऊं कि तुमसे बिछड़ने के बाद हमने फकत उलझनों में गुजारी है जिन्दगी ।

किस्मत संवारने से ज्यादा मुश्किल था तुम्हारी यादों से पीछा छुड़ाना।

तुम्हारे बाद मैं चाय पीता तो मुंह जल जाता था

राह पर चलते-चलते अचानक फिसल जाता था

तुम्हारे बाद जरूरी कामों को भी टाल देता था

किताब को कभी मेंज पर पटकता कभी हवा में उछाल देता था

एक भी काम सलीके से नहीं होता था

मैं होता यहां पर खोया कहीं होता था

तुम्हारे बाद ख्वाहिशों की सुलगती रेत पर मैं नंगे पांव भटकता रहा

दिल कुढ़ता रहा, एक हूक सी उठती रही

तुम्हारे बाद मैंने गमों के बाल खोले, नींद आँखों में कंचे खेलती रही

बदन को आंसुओं से सींचते रहे, रूह हिज्र की मार झेलती रही ।

कभी भीड़ में कभी राह चलते तुम याद आतीं

शाम ढलते, सूरज निकलते तुम याद आतीं ।

तुम याद आतीं जब कभी दो प्रेमियों को साथ देखता

तुम याद आतीं जब अपना खाली हाथ देखता ।

पर हम पुरूष हैं, हमें तमाम दुःखों को सीने में दफ्न करके मुस्कुराना होता है

और फिर आगे बढ़ जाना होता है |

सोचता हूँ कि इस बार ठहर जाऊं तुम्हारे पहलू में उम्र भर के लिए

पर एक बात मेरे जेहन में बार-बार उठती है और मुझे रोक देती है तुम्हारी चौखट तक आने से….

कि वापस घर लौटना एक नई शुरूआत नहीं बल्कि जिंदगी से हार मानकर पीछे हटना होता है।

 

✍️….. अमन सिंह गार्जन