अधूरा सफर

कालेज के सारे दोस्त जानते थे कि वो मेरी पसन्द है । पर अभी तक मैं उससे कुछ कह नहीं पाया था। उसकी दोस्ती में न जाने कौन-सा अपनापन था जो मुझे दिन पर दिन उसकी तरफ खींच रहा था। मैं जब उसके साथ होता और उससे बातें करता तो ऐसा लगता जैसे मैं खुद से ही मिल रहा हूँ। वो भी अपनी सहेलियों से मेरी तारीफ किया करती और बातों ही बातों में मेरा जिक्र भी किया करती थी। मुझे नहीं पता कि उसके दिल में मेरे लिए क्या था, सिर्फ दोस्ती या दोस्ती से बढ़कर कुछ और भी।

हाँ पर मुझसे बात करने के लिए उसका नये-नये बहाने करके मेरे पास आना और क्लास में सबसे ज्यादा मुझमें दिलचस्पी दिखाना सिर्फ एक दोस्ती तक तो नहीं सीमित हो सकता। शायद उसके दिल में भी मेरे लिए वहीं फीलिंग थी जो मेरे दिल में उसके लिए ।

इण्टरवल का समय था, मैं खाना खाने के लिए अपने बैग से टिफिन निकाल रहा था। अचानक से वो मेरे पास आई और बोली कि आज हम तुम घर साथ चलेंगे वो भी बस से। उसकी इस बात ने मेरे तन मन को इस कदर उत्साहित कर दिया जैसे कोई खेत कई दिनों से सूखा पड़ा हो और बारिश होने की आकाशवाणी हो जाए ।

इण्टरवल के बाद के दो घण्टे मानो ऐसे कट रहे थे जैसे एक–एक सेकेण्ड एक-एक सदी के बराबर हो। मेरी नजरें तो ब्लैकबोर्ड पर थीं पर दिमाग उस बस में था जहां पर हम दोनों एक सीट पर बैठे उन हसीन पलों का जी रहे थे। जैसे ही कॉलेज ऑफ हुआ मैंने दोस्त से बोला कि वो अपनी स्कूटी से मुझे बसअड्डे तक छोड़ दे। दोस्त ने ऐसा ही किया और मैं उससे पहले ही बसअड्डे पहुंच गया क्योंकि उसने बोला था कि वो टैक्सी पकड़कर आएगी बसअड्डे तक ।

वो पीले कलर की बस जिसकी आगे से चौथी सीट पर मैं बैठ गया। सीसा पीछे की ओर खिसकाकर सड़क पर आती जाती गाड़ियों को निहार रहा था । बस के पास रूकने वाली हर टैक्सी को देखकर बस यहीं लगता जैसे उसके इन्तजार का तूफान मानो थम सा गया हो। थोड़ी देर बाद ड्राइवर ने बस स्टार्ट की तो मन में एक हिलोर सा उठने लगा । सहमे-सहमे खयालातों का मानो एक ताण्डव सा मच गया। हार्टबीट का 120 के पार जाना लाजमी था क्योंकि अभी तक वो नहीं आई थी ।

पर कुछ ही पलों में एक राहत की सांस और सुकून की खुशबू लेकर उसने बस में कदम रखा। वो नजरों के मिलने से लेकर उसका मेरे पास बैठने तक का अहसास शब्दों में बयां नहीं होता। ऐसा लगा जैसे किसी सपने में खोया हुआ हूँ। बैठते ही उसने पूछा कि कैसे हो । अब उसे कौन बताये कि उसका इतना ही पूछ लेना सब कुछ ठीक कर देता है ।

आज पहली बार उसे इतना करीब से देखा तो यकीन हुआ कि शाहजहां ने ऐसे ही मुमताज के लिए इतना सुन्दर ताजमहल नहीं बनवाया होगा । ऐसा लगा जैसे मैं इस पल के लिए वर्षों से इन्तजार में था। सुना था नल-नील पत्थर छूते थे तो वो उतराने लगता था, आज जब उसने मुझे छुआ तो वो बात भी सच लगी, शायद मैं भी उतरा चला था। जैसे दिल के सुनसान पड़े जंगल की वादियों में आज पहली दफा किसी हिरनी ने चौकड़ी भरी हो। बस ने हल्की सी रफ्तार ली और धीरे-धीरे आगे बढ़ चली। आज दिल-ओ-दिमाग उसकी मौजूदगी में इतना खोया हुआ था कि बस में उसके सिवा कोई और नजर ही नहीं आ रहा था। बस की भीड़ से कहीं बहुत दूर हम एक-दूसरे में खोए हुए थे एक-दूसरे को पाने के लिए। थोड़ी देर बाद उसने अपने बैग से हेडफोन निकाला जिसकी एक पिन अपने दायें कान में लगाकर और एक पिन मेरे बायें कान में लगाकर गाने सुनने लगी। पर आज पता नहीं क्यों उस गाने की खनक मेरे कानों में नहीं गूंज रही थी । ऐसा लग रहा था जैसे हम दोनों एक-दूसरे के दिल के संदेशों का आदान-प्रदान कर रहे हों। जैसे धीरे-धीरे वो मेरे दिल के रास्ते मेरी रूह में दाखिल हो रही हो । उसने शरारत भरी नजरों से मेरे होंठ पर तिल देखा तो इठलाकर बोली कि ये होंठ पर तिल वाले बड़े रंगीले मिजाज के होते हैं ।

मैं बड़ी मासूमियत से उसकी खूबसूरती को निहार रहा था। उसके दुपट्टे में लगी सेफ्टीपेन ने जैसे उसकी लाज–ओ–शरम को रोक रखा हो। बस की खिड़कियों से आती हुई कमजर्फ हवाओं का उसकी जुल्फों से टकराना और उसकी जुल्फों का लहराकर उसके रुखसारों पर बिखर जाना कसम से दिल का कत्ल सा कर जाती थीं। वो कुछ बचकानी बातें कर रही थी पर उसके लरजते होठों के छलकते मकरन्द से जब मैं बाहर निकलता तब तो उसकी बातें सुनता। बस धीरे-धीरे आगे बढ़ रही थी और हम प्यार के सफर में एक – एक पायदान ऊपर चढ़ रहे थे। उसने अपना हाथ मेरे हाथ में रखा तो मैं पागल मन ही मन मुस्कुराया और उसकी उंगलियों से अपनी उंगलियां फंसाकर बोला कि मैं तुम्हें हमे ऐसे ही पकड़कर रखना चाहता हूँ। जैसे पेड़ की जड़ें मिट्टी को कसकर पकड़कर रखती हैं इस उम्मीद से कि अगर मिट्टी को तनिक भी ढीला छोड़ा तो पेड़ गिर जाएगा। मैं उसे सीने से लगाकर उसकी सांसों में उतर जाना चाहता था, फिर कोई प्यास अधूरी न रह जाए इसलिए उसके प्यार में हद से गुजर जाना चाहता था, उसे अपना बनाना चाहता था। मैं उसे खुद को सौंपकर उसके पहलू में जिन्दगी जीने की ख्वाहितों को संजो ही रहा था कि अचानक बस ने ब्रेक ली। बाहर झांककर देखा तो दिल अचानक से मानो बैठ सा गया। उसकी मंजिल आ गयी थी। वो सीट से उठी और मेरे कंधे पर हाथ लगाकर बोली कि सुनो मैं जा रही हूँ। अपना ख्याल रखना। बॉय कहते वक्त उसके होंठ थरथरा रहे थे।

मैं उसे रोकना चाहता था क्योंकि अभी और भी ढेर सारी बातें करने को बाकी रह गयी थीं। अभी और भी जीना बाकी रह गया था उसकी पनाह में उसकी सांसों के पास। पर पता नहीं क्यों मैं उस वक्त उससे कुछ कह नहीं पाया। ऐसा लग रहा था जैसे कोई मेरे जिस्म के अंदर हाथ डालकर मेरी रूह को बाहर निकालकर लिए जा रहा हो। बस से उतरते समय उसने पलटकर ऐसे देखा जैसे वो उसकी आखिरी मुलाकात हो । वो उतरी और हमेशा के लिए छोड़कर चली गई ठीक उसी बस की तरह जो मुझे लौटकर कभी दोबारा नहीं मिली। और मैं कम्बख्त आज भी हर सड़क के हर मोड़ पर खड़ा होकर उसी बस का इन्तजार करता रहता हूँ जिसमें वो सवार होकर आये और हमारे प्यार का सफर उस जगह से आगे बढ़ सके जहां पर वो छोड़कर गई थी ।

 

✍️….. अमन सिंह गार्जन